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अ꣢ध꣣ धा꣡र꣢या꣣ म꣡ध्वा꣢ पृचा꣣न꣢स्ति꣣रो꣡ रोम꣢꣯ पवते꣣ अ꣡द्रि꣢दुग्धः । इ꣢न्दु꣣रि꣡न्द्र꣢स्य स꣣ख्यं꣡ जु꣢षा꣣णो꣢ दे꣣वो꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ मत्स꣣रो꣡ मदा꣢꣯य ॥१०२०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अध धारया मध्वा पृचानस्तिरो रोम पवते अद्रिदुग्धः । इन्दुरिन्द्रस्य सख्यं जुषाणो देवो देवस्य मत्सरो मदाय ॥१०२०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡ध꣢꣯ । धा꣡र꣢꣯या । म꣡ध्वा꣢꣯ । पृ꣣चानः꣢ । ति꣣रः꣢ । रो꣣म꣢꣯ । प꣣वते । अ꣡द्रि꣢꣯दुग्धः । अ꣡द्रि꣢꣯ । दु꣣ग्धः । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । स꣣ख्य꣢म् । स꣣ । ख्य꣢म् । जु꣣षाणः꣢ । दे꣢वः꣢ । दे꣣व꣡स्य꣢ । म꣣त्सरः꣢ । म꣡दाय꣢꣯ ॥१०२०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1020 | (कौथोम) 3 » 2 » 20 » 2 | (रानायाणीय) 6 » 6 » 5 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर ब्रह्मानन्दरस का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अध) और, (अद्रिदुग्धः) मन-बुद्धि रूप सिलबट्टों से अभिषुत वह ब्रह्मानन्द-रूप सोम (मध्वा धारया) मधुर धारा से (पृचानः) संपृक्त करता हुआ (तिरः रोम) रोमाञ्च उत्पन्न करता हुआ (पवते) प्रवाहित होता है। (देवः) प्रकाश का दाता, (मत्सरः) मद-जनक (इन्दुः) सराबोर करनेवाला वह ब्रह्मानन्दरस (देवस्य) दिव्यगुणयुक्त (इन्द्रस्य) जीवात्मा की (सख्यम्) मैत्री को (जुषाणः) सेवन करता हुआ, उसके (मदाय) उत्साह के लिए होता है ॥२॥ यहाँ ध-र-द-म आदियों की अनेक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास है। ‘देवो, देव’ में छेकानुप्रास है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

ब्रह्म के पास से बही हुई आनन्दधाराएँ जब जीवात्मा को नहला देती हैं, तब अत्यन्त निर्मल अन्तःकरणवाला जीवन्मुक्त वह बड़े से बड़े दुःख को भी तिनके के बराबर भी नहीं समझता ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि ब्रह्मानन्दरसं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अध) अपि च (अद्रिदुग्धः) अद्रिभ्यां मनोबुद्धिरूपाभ्यां पाषाणाभ्यां दुग्धः अभिषुतः स ब्रह्मानन्दसोमः (मध्वा धारया) मधुरया प्रवाहसन्तत्या (पृचानः) सम्पर्चयन्। [पृची सम्पर्चने, अदादिः।] (तिरः रोम) रोमाञ्चं कुर्वन् (पवते) प्रवहति। (देवः) प्रकाशप्रदः, (मत्सरः) मदजनकः (इन्दुः) क्लेदकः स ब्रह्मानन्दरसः (देवस्य) दिव्यगुणयुक्तस्य (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (सख्यम्) सखित्वम् (जुषाणः) सेवमानः। [जुषी प्रीतिसेवनयोः, तुदादिः।] तस्य (मदाय) उत्साहाय जायते ॥२॥ अत्र धकार-रेफ-दकार-मकारादीनामसकृदावृत्तेर्वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः। ‘देवो-देव’ इत्यत्र छेकः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

ब्रह्मणः सकाशात् प्रस्रुता आनन्दधारा यदा जीवात्मानं स्नपयन्ति तदा नितान्तनिर्मलस्वान्तो जीवन्मुक्तः स महान्तमपि दुःखं न तृणाय मन्यते ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।९७।११।